Get information about Maharana Pratap in Hindi Language. Here you will get Paragraph and Short Maharana Pratap History in Hindi Language for School Students and Kids of all Classes in 300 and 500 words. यहां आपको सभी कक्षाओं के छात्रों के लिए हिंदी भाषा में महाराणा प्रताप का इतिहास मिलेगा।
Maharana Pratap History in Hindi – महाराणा प्रताप का इतिहास
Maharana Pratap History in Hindi Language – महाराणा प्रताप का इतिहास ( 300 words )
भारत में बहुत से वीर हुए हैं जिनमें से एक महाराणा प्रताप थे जिन्होंने मुगल शासन का विरोध किया था। महाराणा प्रताप उदयपुर में शिशोधिया राजवंश के राजा थे और उनका पूरा नाम राजा महाराणा प्रताप सिंह था। इनका जन्म कुम्भगड़ दुर्ग में 9 मई, 1540 में हुआ था। इनके पिता का नाम राणा उदय सिँह और माता का नाम महाराणी जयवंता कँवर था। महाराणा प्रताप ने अपने पूर्ण जीवनकाल में 11 शादियाँ की थी। महाराणा प्रताप स्वतंत्रता प्रिय थे और वह बचपन से ही दृढ़ निश्चय वाले व्यक्ति थे। उनकी बहादुरी के किस्से आज भी मशहूर है। महाराणा प्रताप का एक सबसे प्रिय घोड़ा था जिसका नाम उन्होंने चेतक रखा था जो बहुत ही बहादुर था।
हल्दी घाटी का युद्ध- मेवाड़ और मुगलों के बीच 18 जुन, 1576 का हल्दी घाटी का युद्ध महाराणा प्रताप के जीवन में बहुत अहम था। इन्होंने मुगल शासक अकबर के सामने झुकने से इंकार कर दिया था। इनकी 20000 की संख्या में राजपूत सेना ने मुग्लों की 80000 की सेना का बहुत ही बहादुरी से सामना किया था। हल्दी घाटी की लड़ाई कुल 4 घंटे तक चली थी जिसमें किसी की भी जीत नहीं हुई थी और इसी लड़ाई के दौरान महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की मृत्यु हो गई थी। छोटी सेना होने के बावजुद भी उन्होंने अकबर की सेना को पीछे मुड़ने पर विवश कर दिया था।
हल्दी घाटी के युद्ध के बाद पूरे देश में 1879-1885 तक मुगलों के खिलाफ विरोध होने लगे थे और महाराणा प्रताप सभी जगहों पर हुकुमत करने लगे थे। उन्होंने बाद में अपने उदयपुर सहित 36 जगहों पर अधिकार प्राप्त कर लिया था। 29 जनवरी , 1597 को राज्यस्थान में उनकी मृत्यु हो गई थी। उनके पराक्रम और हिम्मत के कारण उनका नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है।
Maharana Pratap History in Hindi Language – महाराणा प्रताप का इतिहास ( 500 words )
जब भारत पर मुग़लों का राज्य था| उस समय भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। इनमें से कुछ तो मुसलमानों के विरुद्ध संघर्ष करते रहे, परन्तु कुछ ने मुसलमानों की अधीनता स्वीकार कर ली। इस समय भी अनेक ऐसे राज्य थे जो भारत से मुसलमानों को उखाड़ फेंकना चाहते थे। ऐसे राजाओं में दक्षिण में मुसलमानों से लोहा लेने वालों में शिवाजी मरहठ्ठा का नाम सबसे ऊपर आता है और राजपुताने में महाराणा प्रताप का नाम अमर है।
महाराणा प्रताप का जन्म चितौड़ में राजा उदय सिंह के यहां उस समय हुआ जब मुसलमान भारत में अपने राज्य को बढ़ा रहे थे। राजपुताने को अपने राज्य में लाना उनका लक्ष्य था। मुसलमानों की शवित अधिक थी। अधिकांश राजपूत राजे पराजित हो गए थे। राजा उदय सिंह भी मुसलमानों का मुकाबला न कर सके। जिसका परिणाम यह हुआ कि चितौड़ का राज्य मुसलमानों के हाथों में चला गया । चितौड़ का राज्य छिनते ही बहुत से हिन्दू राजा मुसलमानों से मिल गए।
राजा उदय सिंह अपनी मृत्यु से पूर्व अपने छोटे पुत्र जयमल को राज्य का उत्तराधिकारी बना गया। वह कुशल शासक नहीं था। प्रजा से उसका व्यवहार अच्छा न था। इसी कारण प्रजा और सरदार उससे प्रसन्न नहीं थे। अत: प्रजा ने उसे गद्दी से उतार कर स्वतन्त्रता के लिए सब कुछ बलिदान कर देने वाले राणा प्रताप को राज्य-गद्दी सौंप दी। महाराणा प्रताप दासता से घृणा करते थे। वे अपने राज्य को स्वतन्त्र देखना चाहते थे अतः उन्होंने शपथ खाई कि जब तक चितौड़ को स्वतन्त्र नहीं करवा लेंगे तब तक चैन का जीवन नहीं व्यतीत करेंगे।
राणा प्रताप के प्रयत्नों को दबाने के लिए अकबर ने अपने पुत्र सलीम और राजा मान सिंह को एक लाख की सेना देकर राणा प्रताप के विद्रोह को समाप्त करने के लिए भेजा। राणा प्रताप की शक्ति बहुत कम थी, फिर भी उन्होंने मुसलमानों का डट कर मुकाबला किया, लेकिन राणा प्रताप को युद्धक्षेत्र से अपनी जान बचाकर निकलना पड़ा।
इस युद्ध-क्षेत्र से बचकर वे जंगलों में चले गए। एक ओर उन्हें सेना इकट्ठी करके चित्तौड़ को स्वतन्त्र करवाने की चिन्ता थी दूसरी ओर जंगलों में उन्हें अनेक कष्ट सहने पड़े। कई बार तो घास खाकर निर्वाह करना पड़ा। इतना ही नही, मुस्लिम सेना उनका जंगलों में भी पीछा कर रही थी. लेकिन उन्होंने साहस का त्याग नहीं किया। उनके कुल मन्त्री भामा शाह ने उन्हें बहुत-सा धन दिया जिससे उन्होंने पुनः सेना को इकट्ठा किया और चितौड़ को स्वतन्त्र करवाने के प्रयत्न आरम्भ कर दिए। महाराणा प्रताप ने अपने राज्य के अनेक किले मुसलमानों से वापस लिए, परन्तु वे चितौड़ को वापिस न ले सके। अपने राज्यारोहण के 25 वर्ष बाद उन्होंने अपने पिता के नाम पर उदयपुर नामक शहर का निर्माण कर उस पर स्वतन्त्र मेवाड़ का झण्डा । लहराया, लेकिन चितौड़ को स्वतन्त्र करवाने की अपनी प्रतिज्ञा पर वे अटल रहे। इसी संघर्ष में वे सन् 1667 में इस संसार को छोड़ गए।
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